बहुभाषिकता - अनुवादक
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February 22, 2010

बहुभाषिकता



बहुभाषिकता, वैश्विककरणऔर अनुवाद

Translation, in Malinowski's words implies' the Unification of Cultural Context' -R.H. Robins

आज विश्व 'ग्लोबल विलेज़' में बदल चुका है। वैश्विककरण एवं बहुभाषिकता, विभिन्न देशों की संस्कृतियों, भाषाओं एवं भौगोलिक सीमाओं में परस्पर आदान-प्रदान के कारण उत्पन्न एवं समन्वित स्थिति एवं स्वरूप की ही देन है। काफ़ी हद तक यह स्थिति विभिन्न देशों के साहित्य के परस्पर अनुवाद के कारण ही संभव हो पाई है। इसलिए आज के इस साइबर युग में सृजनात्मक ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ साहित्य के अनुवाद का भी अत्यधिक महत्त्व है। इस आधार पर अगर वर्तमान युग को अनुवाद का युग कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह हम सहज रूप से ही समझ सकते हैं कि अगर 'अनुवाद की कला' न होती तो विश्व साहित्य और विश्व-संस्कृति जैसी सभी अवधारणाएँ मात्र काल्पनिक ही रह जाती।
विश्व संस्कृति के विकास में अनुवाद का योगदान अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। धर्म एवं दर्शन, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी, वाणिज्य एवं व्यवसाय, राजनीति एवं कूटनीति जैसे संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का अनुवाद से अभिन्न संबंध रहा है। संस्कृति की प्रगति भी अंशत: अनुवाद पर आश्रित है। अत: अनुवाद को हम एक ऐसे उपकरण के रूप में देख सकते हैं जो संस्कृति के भौतिक, भावनापरक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं को गतिशील बनाने में योगदान करती है। विश्व के विभिन्न भौगोलिक खंडों में संस्कृति का जो विकास हुआ है, वे एक दूसरे के पूरक हैं। विश्व संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया में विचारों के आदान-प्रदान का बड़ा हाथ रहा है। और वह आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही संभव हो पाया है। उदाहरण के लिये बाइबिल तथा पाश्चात्य साहित्य का भारतीय भाषाओं में और भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों एवं भारतीय साहित्य का यूरोपीय भाषाओं में जो अनुवाद हुआ, उसने पूर्व एवं पश्चिम के की दूरी और पार्थक्य की पुरानी धारणा को तोड़ा वहीं हमें एक दूसरे की संस्कृति से परिचय करवाया तथा वही परिचय हमारी विकास यात्रा में सहायक सिद्ध हुई। अनुवाद भाषाओं और संस्कृतियों के बीच, बौद्धिक उपलब्धियों के बीच और विज्ञान और अध्यात्म के बीच संवाद का सेतु है। अनुवाद का अर्थ ही है 'सेतु बन कर दो अनजान संस्कृतियों और भाषा समुदाय के बीव संवाद स्थापित करना' और इसमें अनुवाद सदा ही सफल रही है। इस पर संदेह नहीं किया जा ladrk saktaa

आज अनुवाद की प्रासंगिकता दिनों-दिन बढ़ रही है। अनुवादक पुन:सर्जक हो गया है। दोहरे जोखिम के इस कार्य की पूर्ति हेतु उसने तलवार की धार पर दौड़ने की कला सीखनी प्रारंभ कर दी है। वह दो संस्कृतियों, विचारधाराओं, चिंतन परंपराओं, भाषिक संस्कारों, रीति-रिवाजों, एवं अवधारणाओं के बीच सेतु निर्माण का कार्य करने लगा है। स्वत: सुखाय या जीवकोपार्जन हेतु अनुवाद कार्य के प्रति समर्पित होने वाला अनुवादक अब परकाया-प्रवेश की प्रक्रिया से गुज़रने लगा है। इस प्रक्रिया से गुज़रने का धैर्य और क्षमता किसी साधक के पास ही हो सकती है। अनुवाद करने की मूलभूत शर्त है। ईमानदारी और निष्ठा है। यदि अनुवादक को हम एक सेतु निर्माण करनेवाले के रूप में देखें तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूरी ईमानदारी से पुख्ता और चिरस्थायी सेतु का निर्माण करे।

वैज्ञानिक आविष्कारों एवं सूचना क्रांति, के इस दौर में ज्यों-ज्यों विश्व दृष्टि का निर्माण होने लगा है। मानवीय जीवन के सरोकार एक सीमित क्षेत्र से बाहर निकलकर विश्वव्यापी स्तर पर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगे है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि संसार के विभिन्न वर्गों के समस्त लोग एक-दूसरे को जानने-पहचानने के लिए उत्सुक हों। इसके परिणामस्वरुप चिकित्सा, तकनीकी वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक आदान-प्रदान होने के कारण मानव के जीवन-मूल्यों एवं अंतर्राष्ट्रीय सोच के परस्पर संवाद से अजनबीपन का कोहरा छँटने लगा है। भौगोलिक सीमाओं के आर-पार एक परिचित एवं आत्मीय वातावरण बनने लगा है। एक देश अथवा संस्कृति की भाषा अपनी साहित्यिक एवं तकनीकी उपलब्धियों को किसी दूसरे देश, भाषा अथवा संस्कृति तक पहुँचने के लिए अनुवाद का ही सहारा लेते हैं। और एक नयी सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा चल पड़ी।

"इतिहास गवाह है कि यदि तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान, कला तथा साहित्य की रक्षा अन्य भाषाओं के अनुवादकों ने न की होती तो उनकी गौरव-गाथाओं को कब का भुला दिया गया होता। सभ्यताओं के विनाश के साथ ही तक्षशिला, नालंदा, एथेंस, बग़दाद, फ्लोरेंस आदि स्थानों पर रचा गया महान साहित्य कब का नष्ट हो गया होता। साहित्य चाहे भारतीय हो अथवा विदेशी, लेखक और अनुवादक के बीच शताब्दी से एक ऐसा अटूट और अंतरंग रिश्ता चला आ रहा है कि जिसका लाभ हर युग और हर भाषा के पाठक ने उठाया है। इस दिशा में विश्व की सर्व प्रमुख भाषाओं में एक हमारी हिन्दी ने भी अपनी अहम भूमिका निभायी है।"

यदि प्राचीन साहित्य के अनुवाद न किए गए होते तो आज वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि विदेशों में तो क्या शायद स्वयं अपने देश में भी इतने चिरंजीवी न होते। अनुवाद न होता तो अरस्तु, प्लेटो, सुकरात, दांते, वर्जिल, मोपांसा, टॉलस्टॉय, पूश्किन, गोर्की, उमर ख़्ौयाम, शेक्सपियर, शैली, बायरन, कीट्स, आदि महान लेखकों की विचार संपदा से सारा विश्व कैसे लाभान्वित होता? रवीन्द्रनाथ, बंकिम और शरत्चन्द्र केवल बंगाल तक ही सीमित रह जाते। तुलसी तथा प्रसाद के काव्य का रसास्वादन अन्य भाषाओंं के पाठक कैसे कर पाते? चीन, जर्मनी, रूस, कोरिया, जापान आदि के लोक-कथाओं के साथ भारतीय लोक कथाएँ भी सामने आ नहीं पाती। पंचतंत्र, जातक कथाएँ, एवं हितोपदेश आदि की कथाएँ, जो बच्चों को रोचक ढंग से नैतिक आचरण की शिक्षा देती हैं, वे विनष्ट हो गई होतीं।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दो भाषाओं के बीच की दूरी मिटाने में अनुवाद ने ही सर्वाधिक योगदान किया है। आज के युग में उन प्रमुख देशों में बहुभाषिकता की स्थिति देखने को मिलती है जहां कई जातियां और भाषाओं के बोलने वाले रहते आए हैं। किंतु किसी भी व्यक्ति के लिए सभी भाषाओं को जानना संभव नहीं है। और साहित्य के क्षेत्र में इसके बिना काम भी नहीं चलता, क्योंकि मानव एक-दूसरे पर निर्भर है। ऐसी स्थित में लोगों के भावों-विचारों को अभिव्यक्त करने का कार्य आसान काम नहीं है। इसलिए इस बहुभाषिकता के सम्मान एवं परस्पर संवाद के लिए अनुवाद कार्य की सहायता लेना ज़रूरी हो जाता है। विभिन्न संस्कृतियों एवं समाजों के विषय में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद को माध्यम बनाना हमारी विवशता है। सृजनात्मक साहित्य के क्षेत्र में बदलती हुई परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुई नई संभावनाओं ने इसके अनुवाद की उपादेयता को और अधिाक महत्त्वपूर्ण बना दिया है। आज विभिन्न देशों की संस्कृतियों की विपुल संपदा हमारे सामने है और हम उनसे सांस्कृतिक आदान-प्रदान करते हुए उनकी सांस्कृतिक विरासत से भली-भाँति परिचित होना चाहते है। यह बात नि:संकोच कही जा सकती है कि किसी उत्कृष्ट कलेवर में, उसी प्रकार के वातावरण में, वैसी ही विशेषताओं सहित पढ़ सकना कई बार संभव नहीं हो पाता।

अनुवाद एक ऐसा सटीक माध्यम है जिसके द्वारा पाठक वांछित क्षेत्र में अपनी जिज्ञासा-पूर्ति कर सकता है। शताब्दियों से अनेक लेखक अनुवाद की इस उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका को निभाते चले आ रहे हैं। भारतेंदु, प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ, दिनकर, जैनेन्द्रकुमार, बच्चन, अमृतराय, अमृता प्रीतम, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, अज्ञेय, राजेन्द्र यादव एवं कमलेश्वर आदि ने विभिन्न भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य को हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के पाठकों को उपलब्ध कराया है।

जिस तरह यूरोप के नवजागरण में ग्रीक एवं लैटिन के ग्रंथों के अनुवाद की बलवती भूमिका रही है आधुनिक भारत के सांस्कृतिक नवोत्थान में भी पश्चिमी साहित्य के अनुवादों का बड़ा हाथ रहा है। इन अनुवादों ने भारतीयों के दिल में एक नयी प्रेरणा भर दी थीं और अपनी प्राचीन संस्कृतियों को नयी दृष्टि से देखने के लिए उन्हें मजबूर किया था। भारतीय संस्कृति का मूल रूप यदि आज भी भारतीय जनता के जीवन में ज्यों का त्यों लिया जाता है तो उसका श्रेय रामायण, महाभारत, भागवत आदि के आधुनिक भारतीय भाषाओं में किये गये अनेक रूपांतरों को प्राप्त है। आज संपे्रषण के साधनों के आविष्कारों के कारण सारा विश्व इतना छोटा बन गया है कि एक देश के लोग दूसरे देश के जीवन और गतिविधियों के बारे में जानने के लिऐ बहुत ही उत्सुक रहते हैं। विश्व मैत्री एवं सहयोग के इस नये दौर में किसी भी प्रदेश की जनता को समझने के लिए उस देश या प्रदेश के साहित्य को समझना अत्यंत अनिवार्य हो गया है।

हमारे यहाँ साहित्यिक कृतियों को पारस्परिक अनुवाद के जरिए देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक पहँुचाने की लम्बी परंपरा रही है, यह सभी जानते हैं। यह एक स्वाभाविक सांस्कृतिक प्रक्रिया है जिसके लिए न तो किसी संस्था की मध्यस्थता की ज़रूरत रहती है और न सरकारी अनुदान की। हमारी बहुभाषिक संस्कृति में राजाश्रय प्राप्त फ़ारसी अंग्रेज़ी के प्रवेश से बहुत पहले साहित्यिक आदान-प्रदान हमारी विरासत का अभिन्न हिस्सा था। उन्नीसवीं शताब्दी में जब उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी हुई तो अंग्रेज़ी से हिन्दी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद इस जटिल आवाजाही में एक नए तत्त्व के रूप में शामिल हुआ लेकिन यहाँ मौजूद दूसरे तत्त्वों, मसलन मराठी, कन्नड या बांग्ला-हिंदी अनुवाद की अहमियत को वह कभी भी खत्म नहीं कर सकी। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जोर पकड़ने के पहले से ही, अंग्रेजी भारत में केंद्रीय स्थान हासिल कर चुकी थी। दूसरी भारतीय भाषाएँ हिन्दी माध्यम के चलते एक दूसरे के समीप एक नए रूपाकार में सामने आई है। मसलन उपन्यास को ही लें, पिछले पन्द्रह-बीस सालों से भारतीय भाषाओं के उपन्यासों के अंग्रेज़ी अनुवादों ने अकल्पनीय गति पकड़ी है। देश के हर अंग्रेज़ी प्रकाशक के पास इस समय अनूदित उपन्यासों की एक लम्बी सूची है। अगर हाल के कुछ विदेशी भाषा से अनूदित कृतियों पर नजर डाले तों उनमें से प्रमुख हैं- अन्ना कारेनिना (लेव तोल्स्तोय, अनु. मदनलाल मधु), धीरे बहे दोन रे (मिखाइल शेलोखोव, अनु. गोपीकृष्ण 'गोपेश'), सुर्ख और स्याह (स्तांधल, अनु. नेमिचन्द्र जैन), कला के सामाजिक उद्गम (गिओर्गी प्लेखानोव, अनु. विश्वनाथ मिश्र), स्त्री अधिकारों का औचित्य (मेरी वोल्स्नक्राफ्ट, अनु. मीनाक्षी), 'पुनरुथान' (लेव तोल्स्तोय, अनु. भीष्म साहनी), जि़न्दगी से प्यार और अन्य कहानियाँ (जैक लण्डन, अनु. सत्यम), 'फांसी के तख्ते से' (जूलियस फ्यूचिक, नेमिचन्द्र जैन और अमृतराय), रोमियो जूलियट और अंधेरा, आर यू आर, प्राग वर्ष, (निर्मल वर्मा) और मज़ाक (हरिमोहन शर्मा) आदि। आज मौलिक साहित्य से अधिक विदेशी या अन्य भाषाओं से हिन्दी मंे अनुदित कृतियों के पाठक हैं। इस दिशा में राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, राधाकृष्ण प्रकाशन, संवाद प्रकाशन आदि मुख्य रूप से सामने आए हैं जो अनुदित साहित्यिक कृतियाँ प्रकाशित करते हैं, वहीं ग्रंथशिल्पी, आदि प्रकाशन आलोचनात्मक, एवं गैर-साहित्यिक पुस्तकों को प्रकाशित कर हिन्दी को समृद्ध कर रहे हैं।

पारस्परिक अनुवाद के इस क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के बीच काफ़ी असमानता पाई जाती है। हिन्दी और मलयालम इस मामले में सबसे आगे हैं। अन्य भारतीय भाषाओं से असाधारण औपन्यासिक कृतियों को अपनी भाषा में उपलब्ध कराने में कोई दूसरी भारतीय भाषा उनकी बराबरी नहीं कर सकती। अनेक बांग्ला कृतियों, विशेषकर उपन्यासों का हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। विदेशी भाषाओं को लें तो सबसे अधिक अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश, पोलिस आदि से अनुवाद हुए हैं लेकिन आंशिक रूप से हंगारी, रोमानी, चेक, जापानी, कोरियाई आदि से भी अनुवाद हुए हैं।

अनुवाद के शुरूआती दौर पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि भारतेंदु तथा उस युग के अन्य लेखक अनुवाद-कार्य के महत्त्व को अच्छी तरह जानते थे। भारतेंदु ने स्वयं तो अंग्रेज़ी, संस्कृृत और बांग्ला से अधिसंख्य अनुवाद किए ही, अपने समकालीन साहित्यकारों को भी इसके लिए पे्ररणा दी। इसी प्रेरणा के कारण भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के अन्य लेखकों द्वारा संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेज़ी नाटकों और उपन्यासों के प्रचुर मात्रा में अनुवादों ने जिस परंपरा की शुरूआत की जिसकी परिणति यह हुई कि लम्बे समय तक हिंदी के अधिकांश रचनाकार अच्छे अनुवादक भी हुए।

भारतेंदु देश की उन्नति के लिए अन्य भाषाओं के ग्रंथों को हिन्दी में अनूदित करना आवश्यक समझते थे। उनका मानना था कि ऐसा करने से उन्हें विदेशियों की राजनीति समझ में आ जाएँगी। वे अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ ग्रंथों को हिन्दी में अनूदित करने का आह्वान करते हुए कहते हैं-
अंगरेजी अरू फारसी अरबी संस्कृत ढेर।
खुल खजाने निहिं क्यों लूटत लावहु देश।।
सार निकाल के पुस्तक रचहु बनाई।
छोटी बड़ी अनेक विध विविध विषय की लाई।।

इसी भावना से प्रेरित होकर भारतेंदु ने अंग्रेजी संस्कृत, बांग्ला, प्राकृत भाषाओं से हिंदी में अनेक अनुवाद किए। 1880 ई. में भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने 'मर्चेंट ऑफ वेनिस' का दुर्लभ बंधु, बांग्ला से यतीन्द्रमोहन ठाकुर के नाटक का हिन्दी में 'विद्या सुन्दर', प्राकृत से राजशेखर के नाटक का हिन्दी में 'कर्पूर मंजरी', संस्कृत से दत्त एवं श्रीहर्ष के नाटकों का हिन्दी में अनुवाद किया। इन अनुवादों से पता चलता है कि भारतेंदु का अनुवाद-संबंधी विशिष्ट दृष्टिकोण था। उनका कहना है कि 'पूर्व कवि के हृदय में प्रवेश किए बिना अनुवाद करना कवि की लोकांतर-स्थित आत्मा को कष्ट देना है। वे शब्दानुवाद के पक्ष में नहीं थे। क्योंकि ऐसा करने पर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। वे मूल रचना के भाव को ज्यों का त्यों दूसरी भाषा में सुरक्षित रखने के पक्षधार थे और चाहते थे कि मूल कृति का अनुवाद इस प्रकार किया जाए कि लक्ष्य भाषा का पाठक उसे पढ़कर मौलिक रचना जैसा आनंद प्राप्त कर सके। ऐसा तभी संभव था जब अनुवादक उस पर अपने, देश, समाज और संस्कृति की छाप छोड़े। शायद इसी कारण उन्होंने शेक्सपियर के नाटक 'मर्चेन्ट आफॅ वेनिस' का हिन्दी अनुवाद करते हुए उसका भारतीयकरण कर दिया। स्पष्ट है कि वे अनूदित ग्रंथ को अपनी भाषा के पाठकों द्वारा सहजता से ग्रहण किए जाने के लिए मूल कृति के कथ्य का ही नहीं भाषा के मुहावरे का शाब्दिक अनुवाद करने की अपेक्षा अपनी भाषा में प्रचलित समतुल्य मुहावरों का समावेश करने के पक्ष में थे। उनकी अनुवाद की यह शैली आगे के अनुवादों में भी देखने को मिलता है।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल में नई शिक्षा के प्रभाव के कारण लोगों की विचारधारा बदल चली थी। उनमें देशहित, समाज हित आदि की उमंग पैदा हो रही थी। देशकाल के अनुसार उसमें साहित्य निर्माण का अथक प्रयत्न होने लगा था। बंगाल में नए ढंग के ऐसे नाटकों और उपन्यासों की रचना का सूत्रपात हो चुका था जिनमें देश और समाज के प्रति उत्पन्न नए भावों का समावेश था। 1882 ई. में बंकिमचंद्र कृत दुर्गेश-नंदिनी के प्रकाशित हो जाने के पश्चात् हिंदी में भी कई मौलिक और अनूदित उपन्यास प्रकाशित हुए। बांग्ला उपन्यासों के अनुवादकों ने भारतेंदु बंकिमचन्द्र कृत राजसिंह, राधाकृष्ण दास ने तारकचंद्र गांगुली कृत स्वर्गलता, बंकिमकृत पे्रमकहानी राधारानी (1883), रमेशचन्द्र दत्त कृत ऐतिहासिक उपन्यास बंग विजेता (1886), किशोरी लाल गोस्वामी की सामाजिक कहानी पे्रममयी (1889) और लावण्यमयी (1891) राधाचरण गोस्वामी श्रीमती सरनकुमारी घोषाल कृत ऐतिहासिक उपन्यास दीप निर्वाण और बिरजा, (1891), रामशंकर व्यास मधुमालती और मधुमती, (1886), विजयानंद त्रिपाठी ने भूदेव मुखोपाध्याय कृत सच्चा सपना (1890) राधिकानाथ बंद्योपाध्याय के सामाजिक उपन्यास स्वर्णबाई (1891) प्रतापनारायण मिश्र ने बंकिमचन्द्र कृत पे्रमकहानी 'युगलागुरीय' (1895) और कपालकुंडला कृतियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।

बंाग्ला के इन उपन्यासों के अनुवाद ने जैसा कि डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- "हिन्दी को एक ओर तो अतिप्राकृत, अतिरंजित, घटना बहुल अय्यारी उपन्यासों के मोहजाल से मुक्त किया और दूसरी ओर शुद्ध भारतीय संस्कृति की ओर उन्मुख किया। उनके अनुवादों ने भाषा को संस्कृत पदावली की मधुरता और गंभीरता की और कोमल भावनाओं की ओर प्रवृत्त किया और सुकुमार कल्पनाओं की रुचि उत्पन्न की। यद्यपि कुछ दिनों तक उसका अभिभूतकारी प्रभाव हिंदी पर छाया रहा, पर सब मिलाकर उसने हिंदी कविता और गद्य-भाषा को समृद्ध ही किया। उर्दू के अतिरंजित कथानकों और कि़स्सागोई परक साहित्य से कुछ देर तक के लिए छुटकारा मिलना हिंदी के विकास के लिए आवश्यक था। उर्दू मुहावरों की भाषा बन गई थी, उस समय उससे बँधे रहने पर हिंदी में उन्मुक्त कल्पना का अवकाश न मिलता, हमारा कथा-साहित्य मुहावरेबाज़ी और लतीफे़बाज़ी में देर तक अटका रहता।"

यूरोप के नवजागरण में ग्रीक एवं लैटिन के ग्रंथों के अनुवाद की बलवती भूमिका रही है। आधुनिक भारत के सांस्कृतिक नवोत्थान में भी पश्चिमी साहित्य के अनुवादों का बड़ा हाथ रहा है। इन अनुवादों ने भारतीयों के दिल में एक नयी पे्ररणा भर दी थी और अपनी प्राचीन संस्कृति को नयी दृष्टि से देखने के लिऐ उन्हें मजबूर किया था। भारतीय संस्कृति का मूल रूप यदि आज भी भारतीय जनता के जीवन में ज्यों का त्यों लिया जाता है तो उसका श्रेय रामायण, महाभारत, भागवत आदि के आधुनिक भारतीय भाषाओं में किये गए अनेक रूपांतरों को प्राप्त है। आज संप्रेषण के साधनों के आविष्कारों के कारण विश्व इतना छोटा बन गया है कि एक प्रदेश के लोग दूसरे प्रदेश के जीवन और गतिविधियों के बारे में जानने के लिए बहुत ही उत्सुक रहते हैं। विश्व मैत्री एवं सहयोग के इस नये दौर में किसी भी प्रदेश की जनता को समझने के लिए उस प्रदेश के साहित्य को समझना अत्यंत अनिवार्य हो गया है।

लोगों में आज समकालीन साहित्य को पढ़ने की ललक बढ़ती जा रही है। इस कारण आज विश्व भर में साहित्यक अनुवाद की बड़ी माँग है। भारत जैसे बहुभाषा भाषी देश में तो अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्वरूप को निखारने के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकनेवाली भौगोलिक और भाषाई दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति के युग में अनुवाद एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की मान्यता प्राप्त भाषाओं-अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, चीनी एव अरबी के अतिरिक्त हिंदी, स्पेनिश आदि भाषाओं का महत्त्व भी अनुवाद के क्षेत्र में निरंतर बढ़ रहा है। मारिशस, फ़ीजी, सूरीनाम आदि देशों की प्रमुख भाषा के रूप में और विभिन्न भारतीय भाषाओं को जोड़नेवाली भाषा के रूप में हिन्दी एक व्यापक एवं प्रभावी अनुवाद-माध्यम बनती जा रही है।

बीसवीं शताब्दी अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति की शताब्दी है और इस कारण इसे अनुवाद की शताब्दी भी कहा जा सकता है। संप्रेषण के नये माधयमों के आविष्कारों ने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की कल्पना को साकार बना लिया है। भारत जैसे बहुभाषाभाषी देश में परस्पर अनुवाद की तो आवश्यकता है ही, लेकिन विश्वभाषाओं से भी अनुवाद की अनिवार्यता है।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि बहुभाषिक, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक समाज को जोड़ने का दायित्व हिंदी अनुवाद के माध्यम से एक हद तक पूरा हुआ है। आज अनुवाद की वजह से ही हम अपने ही देश की अन्य संस्कृति तथा आचार-व्यवहार था साहित्य से परिचित हैं। भारत बहुत पहले से ही इतना विशाल और बहुविध संस्कृतियों का देश रहा है कि अनुवाद के बिना यह जान पाना संभव नहीं हो पाता कि किस प्रदेश की क्या विशेषता है? अगर अनुवाद न होता तो हम आज तक कई मामलों में अनभिज्ञ बने रहते और समाज का इतना विकास न हुआ होता। चूंकि भारत की राजभाषा हिन्दी है इस कारण भी हिन्दी एक ऐसी भाषा के रूप में रही है जिसने बहु-संस्कृति और बहु-भाषिक समाज को एक सूत्र में बाँधे रखा है। अत: इस कथन से पूर्णत: सहमत हुआ जा सकता है कि हिन्दी अनुवाद ने बहु-भाषिक, बहु-जातीय और बहु-सांस्कृतिक समाज को जोड़ने का दायित्व पूरा किया है।'

महेश्वर
9968012866, 9013286373
www.swapanonline.com
Dehli , India

6 comments:

अनुनाद सिंह said...

इतना अच्छा लेख लिखने के बाद इतना बड़ा विराम् ! लिखते रहिये। हिन्दी को अच्छे लेखों की बहुत आवश्यकता है।

महेश्‍वर said...

jaroor

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा said...

अत्यंत उपयोगी और सूचनाप्रद निबंध.

Virat said...

anuvad par accha likhe hai. vartman parivesh me sarjantamak anuvad ka lop ho rha hai. anuvad ki samasya par likhe.
mai bhu me padhta hoon.

zeenatkhushboo8@gmail.com said...

बहुत ही अच्छा लेख है | मुझे इससे बहुत जानकारी मिली और मेरे प्रेजेंटेशन बनाने में इस लेख का बहुत सहयोग मिला | आपसे अनुरोध है 'भारतीय भाषाओं में सामंजस्य और अनुवाद की भूमिका' शीर्षक पर भी कुछ लिखें | आपके लेख में नयापन है |

zeenatkhushboo8@gmail.com said...

बहुत ही अच्छा लेख है | मुझे इससे बहुत जानकारी मिली और मेरे प्रेजेंटेशन बनाने में इस लेख का बहुत सहयोग मिला | आपसे अनुरोध है 'भारतीय भाषाओं में सामंजस्य और अनुवाद की भूमिका' शीर्षक पर भी कुछ लिखें | आपके लेख में नयापन है |